
बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में अभूतपूर्व उल्लंघन ने पूरे देश को स्तब्ध और व्यथित कर दिया। दुनिया के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक मोदी जी का काफिला पाकिस्तान की सीमा से महज 10 किलोमीटर दूर एक फ्लाईओवर पर 20 मिनट से अधिक समय तक फँसा रहा। इतिहास में भारत ने कभी भी इतनी बड़ी सुरक्षा चूक नहीं देखी जहां प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने प्रधानमंत्री के काफिले को इतने भयावह रूप से बाधित किया हो। पीएम की सुरक्षा को जिस लापरवाही और मनमाने ढंग से पंजाब सरकार ने संभाला वह अत्यन्त शर्मनाक होने के साथ ही कांग्रेस सरकार की मंशा पर गंभीर संदेह उत्पन्न करता है।
अभी कुछ दिन पहले ही आधुनिक खतरों को देखते हुए भारत सरकार ने यह सुनिश्चित किया था कि प्रधानमंत्री के लिए मर्सिडीज मेबैक कार अत्यंत आवश्यक है। इस तथ्य की सूचना मिलते ही कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने राजनीतिक छींटाकशी शुरू कर दी। सभी विरोधी पार्टियों ने यह मुद्दा उठाया इसकी क्या आवश्यकता थी? ऐसा कौन सा खतरा था जिस कारणवश प्रधानमंत्री को इतनी महंगी कार की जरूरत पड़ी? शायद फिरोजपुर में हुई घटना इस प्रश्न पर विराम चिन्ह लगाती है। कांग्रेस मोदी विरोध और अपने युवराज की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने में इस हद तक लीन है कि भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री के जीवन को भी खतरे में डालने से पीछे नहीं हटती। इस प्रक्रिया में वह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्व लोकप्रिय नेता की सुरक्षा जैसे गंभीर विषयों पर भी सियासत की रोटियां सेकने में लग जाती है। कुछ ऐसी ही भावना की पुनरावृति इस सुरक्षा चूक के बाद भी पंजाब की कांग्रेस सरकार की ओर से देखने को मिली।
प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए मुख्यमंत्री, डीजीपी एवं पंजाब के मुख्य सचिव की अनुपस्थिति, डीजीपी द्वारा दिए गए रूट क्लीयरेंस के झूठे आश्वासन और सीएम चन्नी द्वारा मुद्दे के त्वरित हल के लिए फोन पर बात करने से इनकार करना महज एक संयोग नहीं हो सकता। प्रोटोकॉल की अवहेलना, पंजाब प्रशासन और पुलिस द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने से पीछे हटना एवं संवैधानिक पद का अपमान करना एक सोचे समझे प्रयोग की ओर इशारा करता है। क्योंकि इतिहास गवाह रहा है कि जहां पर भी कई संयोग एक साथ हुए हैं वहां कोई ना कोई बड़ी साजिश जरूर सामने आई है। सवाल यह भी उठता है की यदि यह प्रयोग था तो कांग्रेस इस प्रयोग से क्या परिणाम प्राप्त करना चाहती थी? जब समय की मांग सीएम से त्वरित कार्रवाई करके सुरक्षा सुनिश्चित करने की थी तब चन्नी साहब ने आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलना ही उचित समझा। उन्होंने प्रधानमंत्री के हवाई मार्ग की जगह सड़क मार्ग को चुनने के फैसले के पीछे की मंशा को ही चुनौती दे डाली जबकि वह मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों से भली-भांति अवगत थे। क्या इससे यह परिलक्षित नहीं होता कि कांग्रेस की भी मंशा प्रधानमंत्री को उसी प्रकार के दुर्भाग्यपूर्ण विमान हादसे का शिकार होते हुए देखने की थी जिसमें हाल ही में जनरल बिपिन रावत एवं उनके 13 साथियों की मृत्यु हो गई थी?
प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेंध एक पृथक घटना के रूप में नहीं देखी जा सकती वरन् यह कांग्रेस के द्वारा सुनियोजित एक कुटील योजना की ओर इंगित करती है। घटना के तुरंत बाद उसी संवेदनशील इलाके में तीन आतंकवादियों का पकड़ा जाना और सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों का प्रदर्शनकारियों के साथ चाय पार्टी करना पंजाब और शेष भारत में अशांति पैदा करने के पुख्ता इंतजाम के सबूत हैं। आखिर किसके इशारों पर सख्त कार्यवाही करने की जगह ख्यातिप्राप्त पंजाब पुलिस मूकदर्शक बनकर बैठी रही? प्रदर्शनकारियों के साथ पुलिस अधिकारियों की मिलीभगत का यह शर्मनाक प्रदर्शन सत्ता में बैठे कांग्रेस नेताओं के राजनीतिक संरक्षण के बिना संभव नहीं हो सकता है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब के डीजीपी ने प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए बल प्रयोग करने की मंशा जताई पर उन्हें सरकार के वरिष्ठ माननीयों द्वारा इसकी इजाजत नहीं दी गई। देश में स्थिरता बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री की सुरक्षा अत्यंत आवश्यक है परंतु डीजीपी को ऐसा कुछ नहीं करने का आदेश दिया गया जिससे राज्य की कांग्रेस सरकार को परेशानी हो या सीधे शब्दों में कहें तो वोट बैंक में कोई सेंध लगे। यह निसंदेह कांग्रेस सरकार के 1984 के नरसंहार के अपने दाग को मिटाने के उद्देश्य से सिखों के खिलाफ एक और दंगा भड़काने के दुर्भावनापूर्ण इरादों की ओर इशारा करता है।
यह एक स्थापित तथ्य है कि कांग्रेस सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकती है। यह बात जगजाहिर है कि 1980 के दशक में कांग्रेस अकाली दल को हाशिए पर पहुंचा कर और उसके सिख समाज से संबंध को पृथक करके स्वयं सत्ता पर काबिज होना चाहती थी। इस राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया में ही कांग्रेस ने चरमपंथी तत्वों को प्रोत्साहन देना आरंभ किया था। परिणाम स्वरूप तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब के शांतिपूर्ण वातावरण को अलगाववाद एवं सांप्रदायिकता की आग में झुलसने दिया। अंततः पंजाब में बड़े पैमाने पर हत्याएं, आतंकवादी हमले और अलगाववादी विद्रोह देखा गया जिसमें इंदिरा गांधी समेत अनेकानेक नेताओं ने अपने प्राणों की आहुति दी। किंतु आज उन्हीं अराजक तत्वों के साथ भारत के प्रधानमंत्री की सुरक्षा की सौदेबाजी करके कांग्रेस क्या हासिल करना चाहती है यह एक विचारणीय प्रश्न है। सच तो यह है कि कांग्रेस स्वयं की गलतियों से भी सीख नहीं लेना चाहती तभी सत्ता के लालच में अराजक तत्वों की गोद में जाकर बैठ गई है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में यदि भारत का एक और विभाजन भी करना पड़ जाए तो कांग्रेस पार्टी उसे भी सहर्ष स्वीकार कर लेगी। वास्तव में इस कथन में किसी भी प्रकार का संशय नहीं है कि वर्तमान कांग्रेस आलाकमान पंजाब को एक बार फिर उसी चरमपंथ की आग में ढकेलना चाहती है जिससे वह हाल ही में उबरा है। पिछले एक वर्ष में कुशासन और लगातार कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ते देख जनता क्या पंजाब को फिर से अस्थिरता की भेंट चढ़ते देखना चाहेगी, इसका उत्तर शायद आगामी चुनावों में देखने को मिलेगा जब मतदाता कांग्रेस को जड़ से उखड फेंकने की नीयत से वोट डालेंगे। वास्तकविकता में कांग्रेस अपनी दुर्दशा के लिए स्वयं जिम्मेदार है जहाँ उसके नेता ओछी और छिछली राजनीति करके पार्टी को हाशिये पर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।